विवेचना : दिवाली का यूनेस्को मानांकन: भारत की जीवित परंपराओं का वैश्विक आलोक

लेखक परिचय
डॉ. रुपेन्द्र कवि
मानवशास्त्री, साहित्यकार एवं समाजसेवी
उप सचिव, राज्यपाल (छत्तीसगढ़)

यूनेस्को द्वारा दिवाली को “अमूर्त सांस्कृतिक धरोहर” के रूप में मान्यता दिया जाना केवल भारत के लिए गौरव का क्षण नहीं, बल्कि विश्व समुदाय के लिए भी सांस्कृतिक संवाद का नया अध्याय है। दीपावली सदियों से भारतीय समाज की जीवित परंपरा रही है—जिसकी जड़ें मिथकों, लोककथाओं, कृषि-चक्र, सामाजिक मेल-जोल और सामुदायिक जीवन में गहराई तक उतरी हुई हैं।
यह मान्यता हमें स्मरण कराती है कि त्योहार केवल अनुष्ठान नहीं, बल्कि समाज की सामूहिक स्मृति, पहचान और सांस्कृतिक निरंतरता का आधार होते हैं। भारत पहले से यूनेस्को की अमूर्त धरोहर सूची में कुंभ मेला, रामलीला, दुर्गा पूजा और विभिन्न लोककलाओं सहित अनेक परंपराओं का प्रतिनिधित्व करता रहा है। दिवाली का जुड़ना इस सांस्कृतिक पट को और समृद्ध बनाता है।
मानवशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य
मानवशास्त्र परंपराओं को एक जीवित सामाजिक प्रक्रिया के रूप में समझता है। दिवाली इसी अर्थ में महत्वपूर्ण है—देश के हर क्षेत्र में भिन्न रूपों में मनाए जाने के बावजूद इसकी मूल भावना एक है: प्रकाश का प्रतीकत्व, जीवन का नवीनीकरण, सामाजिक पुनर्संपर्क, पारिवारिक मिलन और सद्भाव की स्थापना।
दिवाली सामुदायिकता का पर्व है—जहाँ धार्मिक, भाषाई, क्षेत्रीय विविधताएँ एक साझा सांस्कृतिक अनुभूति में बदल जाती हैं। यही तत्व इसे “मानवता की अमूर्त विरासत” के रूप में विशिष्ट बनाता है।
भारत के लिए क्या बदलता है?
यूनेस्को मानांकन के दूरगामी सामाजिक व सांस्कृतिक प्रभाव होंगे—
सांस्कृतिक संरक्षण को संस्थागत गति मिलेगी; कुम्हारों, हस्तशिल्पियों, लोककलाकारों और मौखिक परंपराओं का दस्तावेजीकरण सुदृढ़ होगा।
सांस्कृतिक पर्यटन से स्थानीय अर्थव्यवस्था को नई ऊर्जा और रोजगार के अवसर प्राप्त होंगे।
दिवाली की वैश्विक पहचान भारत को एक सांस्कृतिक दूत के रूप में उभारती है—जो बहुलता, सहअस्तित्व और परंपरा में निहित सार्वभौमिक मूल्यों को रेखांकित करती है।
युवा पीढ़ी के लिए यह अपनी जड़ों को समझने और आधुनिकता व परंपरा के बीच संतुलन साधने का अवसर है।
चुनौतियाँ भी साथ-साथ
अत्यधिक व्यावसायिकता, पर्यावरणीय दबाव और उत्सवों का बाज़ारीकरण ऐसी चुनौतियाँ हैं जिनसे सतर्क रहना होगा। यह आवश्यक है कि दिवाली अपनी मूल सामुदायिक भावना, सादगी और लोकपरंपरा के स्वरूप में जीवित रहे—और उत्सव उद्योग का उत्पाद न बन जाए।
निष्कर्ष
दिवाली का यूनेस्को की अमूर्त सांस्कृतिक धरोहर सूची में शामिल होना केवल भारतीय संस्कृति की प्रतिष्ठा का विषय नहीं; यह वैश्विक समुदाय को एक साझा सांस्कृतिक भाषा प्रदान करता है—प्रकाश, आशा और मानवीय संवेदना की भाषा।
यह मान्यता भारत को अपनी सांस्कृतिक विरासत को और व्यवस्थित रूप से सहेजने, समझने व विश्व के साथ साझा करने का अवसर देती है।

Disclaimer
यह लेख लेखक के व्यक्तिगत विचार प्रस्तुत करता है। इसका लेखक के पद, दायित्व या किसी आधिकारिक संस्थागत मत से कोई संबंध नहीं है।


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