रमन सरकार की लापरवाही से 58 प्रतिशत आरक्षण रद्द

रायपुर/19 सितंबर 2022। छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने प्रदेश में 58 प्रतिशत आरक्षण को रद्द कर दिया है। ये मामला 2011 में सरकारी नियुक्ति सहित अन्य दाखिला परीक्षा में आरक्षण से जुड़ा है। इस मामले में आज हाईकोर्ट ने 50 प्रतिशत से ज्यादा आरक्षण के असंवैधानिक बताते हुए आरक्षण को रद्द कर दिया।

आपको बता दें कि 2011 में राज्य सरकार ने आरक्षण प्रतिशत बढ़ाया था, जिसे लकर 2012 में हाईकोर्ट में चुनौती दी गयी थी। कोर्ट के फैसले पर प्रतिक्रिया देते हुए कांग्रेस नेता आरपी सिंह ने आरक्षण को रद्द होने के लिए पूर्ववर्ती राज्य सरकार की अदूरदर्शिता को जिम्मेदार ठहराया है।

उन्होंने कहा कि उस वक्त की रमन सरकार ने आरक्षण को घटाने और बढ़ाने को लेकर किसी भी तरह की नियमानुसार कार्यवाही नहीं की। सुप्रीम कोर्ट के विभिन्न निर्णयों जिसमें इंदिरा साहनी का फैसला प्रमुख के अनुसार कोई भी राज्य सरकार यदि 50 प्रतिशत से ज्यादा आरक्षण करती है तो अत्यंत विशेष परिस्थितियों, विचार एवं तथ्यों के साथ कोर्ट के समक्ष अपना पक्ष प्रस्तुत करना होगा। इसका भी ख्याल नहीं किया गया।

आरपी सिंह ने तत्कालीन राज्य सरकार की मंशा पर सवाल उठाते हुए कहा कि राज्य सरकार ने आरक्षण में संशोधन के पहले सुप्रीम कोर्ट के पूर्ववर्ती फैसले को ध्यान में नहीं रखा। उन्होंने कहा कि बाद में दोबारा संशोधित जवाब पेश करते हुए कुछ डेटा प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया, लेकिन वो भी प्रर्याप्त नहीं थे।

कांग्रेस नेता आरपी सिंह ने कहा कि आरक्षण का पूरा प्रकरण शुरू से ही अपाहिज बच्चे की तरह तत्कालीन राज्य सरकार ने खड़ा किया, जिसके ना तो हाथ थे और ना ही पैर। इस प्रकरण में जब राज्य सरकार की अंतिम बहस हुई तो खुद महाधिवक्ता मौजूद रहे थे। उन्होंने मंत्रीमंडलीय समिति की हजारों पन्नों की रिपोर्ट को कोर्ट में प्रस्तुत किया था।

लेकिन कोर्ट ने ये कहते हुए उसे खारिज कर दिया कि राज्य शासन ने कभी भी उक्त दस्तावेजों को शपथ पत्र का हिस्सा ही नहीं बनाया। लिहाजा, कोर्ट ने उसे सुनवाई के लिए स्वीकार नहीं किया।आरपी सिंह ने कहा कि राज्य सरकार ने 2012 में डेटा कलेक्शन जो कि इंदिरा साहनी निर्णय के लिए आवश्यक था एवं विशेष परिस्थितियों में देखने, विचार करने और निर्णय के संदर्भ में पहुंचने की कोई भी कार्यवाही जांच नहीं की गयी।

उन्होंने कहा कि हाईकोर्ट का आज का निर्णय तत्कालीन राज्य सरकार की तरफ से प्रस्तुत किये गये तथ्यों दस्तावेजों, शपथ पत्रों के आधार पर तय हुआ था। जिसमें मौजूदा राज्य सरकार का किसी भी तरह का हस्तक्षेप ना था और ना हो सकता था।