File Photo ( PIB )
आलेख : धर्मेन्द्र प्रधान
भारतीय भाषा उत्सव, हमारी विविध भाषाई विरासत को मनाने और 11 दिसम्बर को श्रद्धेय महाकवि सुब्रमण्यम भारती की जयंती के अवसर पर 4 से 11 दिसम्बर तक मनाया जा रहा है। एक सप्ताह का उत्सव वर्तमान में सभी राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों में चल रहा है। ‘भाषाओं के माध्यम से एकता’ इस वर्ष के समारोह का मुख्य विषय है, जो भारत की सभ्यता की विशिष्ट पहचान है। अभी कुछ महीने पहले, 3 अक्टूबर, 2024 को, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने पाँच भाषाओं – मराठी, पाली, प्राकृत, असमिया और बांग्ला को शास्त्रीय भाषाओं का दर्जा देकर एक तरह का इतिहास रच दिया, इस प्रकार तमिल, संस्कृत, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम और ओडिया जैसी पहले से मान्यता प्राप्त छह अन्य शास्त्रीय भाषाओं के दायरे का विस्तार किया। भारत की उत्कृष्ट भाषाई विरासत की गहन स्वीकृति के रूप में, यह घोषणा उन सभी लोगों के लिए अत्यंत गौरव की बात है जिनकी ये भाषाएं मातृभाषा है। भारत की विविध भाषाएँ भारतीयता की अभिव्यक्ति हैं और ये हमारी भारतीय ज्ञान प्रणाली का अभिन्न अंग हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के अनुसार, सभी भारतीय भाषाएँ राष्ट्रीय भाषाएँ हैं और वे भारतीयता की आत्मा हैं और इसलिए सम्मान की पात्र हैं। भाषाई विविधता राष्ट्रीय एकता को मजबूत करती है और ‘एक भारत श्रेष्ठ भारत’ के लक्ष्य को साकार करने में मदद करती है। इसलिए, प्रत्येक व्यक्ति को भाषाई गौरव को सम्मान की निशानी के रूप में धारण करना चाहिए। प्रधानमंत्री ने वैश्विक मंच पर भी इसका उदाहरण दिया जब उन्होंने जोर देकर कहा, “मैं संयुक्त राष्ट्र में भी गर्व के साथ भारत की भाषाएँ बोलता हूँ। अगर श्रोताओं को तालियाँ बजाने में थोड़ा समय लगे, तो लगे।” यह कथन भारत की भाषाई विविधता को संरक्षित करने के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को स्पष्ट करता है और भाषाई गौरव के मूल्य को उजागर करता है। भारत एक ऐसी भूमि है जहाँ न केवल अनेक भाषाएँ हैं, बल्कि एक दूसरे का सम्मान भी करती हैं। यह एक से अधिक भाषा के उत्कृष्ट इस्तेमाल का सटीक उदाहरण है। हमारी भाषाई विविधता एक समृद्ध, जटिल ताने-बाने का निर्माण करती है, जो हमारी राष्ट्रीय पहचान को एक साथ बुनती है और साथ ही देश की एकता को विविधता के बीच पोषित करती है। औपनिवेशिक शासन के दौरान इस सांस्कृतिक शक्ति को भारी नुकसान उठाना पड़ा। 2 फरवरी 1835 को, थॉमस बैबिंगटन मैकाले ने भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल को एक ज्ञापन प्रस्तुत किया, जिसे “मैकालेज मिनट ऑन इंडियन एजुकेशन” के रूप में जाना जाता है, जिसमें देशी भाषाओं पर अंग्रेजी को प्राथमिकता दी गई थी, जिसका उद्देश्य ब्रिटिश हितों के प्रति वफादार भारतीयों का एक वर्ग बनाना था, जो पीढ़ियों को उनकी सांस्कृतिक और भाषाई जड़ों से अलग कर रहा था। तब से, उपनिवेशवाद का दीर्घकालिक प्रभाव काफी लंबे समय तक रहा, जिसने हमारे सांस्कृतिक और भाषाई गौरव को गंभीर चोट पहुंचाई है। भारत में भाषाई जनसांख्यिकी समृद्ध और विविध है, जिसमें से अस्सी प्रतिशत आबादी खुद को गैर-अंग्रेजी, मूल भाषा बोलने वालों के रूप में पहचानती है। गहन शिक्षा के मूल में मातृभाषा है। हमारी भाषाएं केवल संचार के उपकरण नहीं हैं – वे इतिहास, परंपराओं और लोककथाओं के भंडार हैं, जो पीढ़ियों के सामूहिक ज्ञान को संरक्षित करती हैं और एक अद्वितीय विश्वदृष्टि प्रदान करती हैं। रचनात्मकता और भावनात्मक बुद्धिमत्ता से भरपूर बच्चे तब फलते-फूलते हैं जब उनकी शिक्षा उनकी मूल भाषा में शुरू होती है। अपनी मातृभाषा में एक प्राइमर घर से कक्षा तक एक निर्बाध पुल का निर्माण करता है, उन्हें ‘मातृ’ भाषा से ‘अन्य’ भाषा तक का मार्गदर्शन – बोलने से लेखन, शब्दावली से शब्दार्थ और भाषा से विषय की समझ में परिवर्तन करता है। जैसा कि रवींद्रनाथ टैगोर ने मार्मिक रूप से कहा था, “एक बच्चा पाठ्यपुस्तकों से नहीं, बल्कि अपनी माँ से बोलना सीखता है।” मातृभाषा में शिक्षा बुनियादी समझ से लेकर जटिल विचार तक स्वाभाविक प्रगति को बढ़ावा देती है। भारत की भाषाई विविधता बौद्धिक और सांस्कृतिक संपदा का खजाना है। कश्मीर की बर्फ से ढकी चोटियों से लेकर कन्याकुमारी के धूप से सराबोर तटों तक और कच्छ के बंजर विस्तार से लेकर कोहिमा की हरी-भरी पहाड़ियों तक, हमारी भाषाएँ हमारे लोगों को अंदर से जोड़ती हैं। बच्चों को उनकी मातृभाषा में पढ़ाना न केवल उनकी विरासत से जुड़ाव को बनाए रखता है बल्कि उन्हें भविष्य के लिए तैयार भी करता है। मातृभाषा में एक मजबूत नींव रखकर, हम बच्चों को अधिक आसानी और समझ के साथ अन्य भाषाओं और विषयों में महारत हासिल करने के लिए सशक्त बना सकते हैं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) 2020 ने इस दृष्टिकोण को पूरी तरह अपनाया है। अपनी भाषाई विरासत को पुनः प्राप्त करने की कोशिश करते हुए, एनईपी ने मातृभाषा को प्रारंभिक शिक्षा के केन्द्र में रखा है, यह स्वीकार करते हुए कि भाषा केवल सीखने का एक साधन नहीं है, बल्कि पहचान को आकार देने, आत्मविश्वास का निर्माण करने और संज्ञानात्मक विकास को बढ़ावा देने का एक मुख्य घटक है। एनईपी 2020 बेहतर शिक्षण परिणामों के लिए विभिन्न भारतीय भाषाओं में उच्च गुणवत्ता वाली शिक्षण और अध्यषयन सामग्री तक समान पहुंच को आवश्यक बनाता है। यह शिक्षा के साथ प्रौद्योगिकी, विशेष रूप से देश की विविध भाषाई विरासत को संरक्षित करने और बढ़ावा देने के संदर्भ में, संयोजन पर विशेष जोर देता है। राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद के भाषा संगम कार्यक्रम और मशीन अनुवाद केन्द्र से लेकर अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद द्वारा कई भारतीय भाषाओं में तकनीकी पुस्तकों सहित पुस्तकों के अनुवाद ऐप आधारित अनुवाद से लेकर विश्वविद्यालय अनुदान आयोग और भारतीय भाषा समिति द्वारा अस्मिता – अनुवाद और अकादमिक लेखन के माध्यम से भारतीय भाषाओं में अध्ययन सामग्री का संवर्धन – पहल तक, शिक्षा को समावेशी बनाने के लिए भारतीय भाषाओं को बढ़ावा देने के लिए एक मजबूत इकोसिस्टम बनाने के लिए अच्छी तरह से प्रयास किए गए हैं। इसके अलावा, 79 भारतीय भाषाओं में प्राइमर तैयार करने की सरकार की अभूतपूर्व पहल एक महत्वपूर्ण कदम है, जो यह सुनिश्चित करता है कि ग्रामीण, आदिवासी और दूरदराज के इलाकों में शुरुआती वर्षों के दौरान बच्चों को उनकी मातृभाषा में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिले। ये प्राइमर, अन्य शैक्षिक सामग्रियों के साथ, सिर्फ़ संसाधन से कहीं ज़्यादा हैं – ये रचनात्मकता, आलोचनात्मक सोच और आजीवन सीखने के प्रवेश द्वार हैं। भाषा हमारे विचारों को आकार देती है, हमारी भावनाओं को व्यक्त करती है और हमें हमारी सांस्कृतिक जड़ों से जोड़ती है। एनईपी 2020 एक नए युग की शुरुआत है, जहाँ बच्चे अपनी मातृभाषा में सीख सकते हैं और धीरे-धीरे अन्य भाषाओं में महारत हासिल कर सकते हैं। अपनी शिक्षा प्रणाली को उपनिवेशवाद से मुक्त करके, हम विचारकों की एक ऐसी पीढ़ी का पोषण करना चाहते हैं जो न केवल अकादमिक रूप से उत्कृष्ट प्रदर्शन करे बल्कि भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को भी आगे बढ़ाए। यह परिवर्तन केवल एक नीतिगत बदलाव नहीं है – यह एक सांस्कृतिक पुनर्जागरण का प्रतिनिधित्व करता है। जब हम भविष्य की ओर देखेंगे, शैक्षिक उत्कृष्टता और सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक उन्नति भारत की भाषाई विविधता का आधार होगी। इस अमृत काल में, जब हम विकासशील भारत के एजेंडे पर काम कर रहे हैं, हमारी मातृभाषाएँ विकास के शक्तिशाली साधन बनने के लिए तैयार हैं। आइए हम अपनी भाषाई विरासत को अपनी प्रगति का आधार बनाएँ, क्योंकि भारत वैश्विक मंच पर आगे बढ़ रहा है।