छत्तीसगढ़ के रंग देखो मेरे संग : प्रकृति की गोद में बसा नगर केसकाल

फोटो एवं आलेख : ज्ञानेंद्र पाण्डेय

ज्ञानेंद्र पांडेय वाइल्डलाइफ फोटोग्राफर हैं तथा प्रकृति संरक्षण के कार्यों से जुड़े हुए हैं। वर्तमान में पीएचडी चैंबर में रेजिडेंट ऑफिसर के रूप में कार्यरत हैं। इन्हें उद्यमिता तथा परियोजना सलाहकार के रूप में कार्य करने का 20 वर्षों का अनुभव है।

रहस्य, रोमांच तथा प्रागैतिहासिक साक्ष्यों से भरी घाटी का सौन्दर्य

रायपुर : छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से लगभग 170 किलोमीटर तथा कांकेर से 29 किलोमीटर दूर स्थित कोंडागांव जिले का गाँव केसकाल अपने प्राकृतिक सौन्दर्य के कारण सम्पूर्ण प्रदेश में प्रसिद्द है। राष्ट्रीय राजमार्ग 30 पर स्थित केसकाल की लगभग 5 किलोमीटर घाटी अपने 12 घुमावदार सड़क तथा प्राकृतिक सुन्दरता के लिए प्रदेश के हर पर्यटन प्रेमी की पहली पसंद है। केसकाल घाटी को प्रदेश में तेलिन घाटी तथा बस्तर का प्रवेश द्वार के नाम से भी जाना जाता है। इस घाटी के मध्य में तेलिनसती माता का मंदिर स्थित है, इस मंदिर में घाटी से गुजरने वाले सभी यात्री एवं वाहन रूककर माता का दर्शन लाभ लेते है तथा माता का प्रसाद रूपी आशीर्वाद ग्रहण कर अपने गंतव्य की ओर प्रस्थान करते हैं।

केसकाल नगर को प्रकृति ने अपना प्यार, दुलार एवं ढेर सारा आशिर्वाद दिया है l केसकाल में एक पर्यटक को आकर्षित करने वाले सभी कारण हैं l दूर-दूर तक फैली हुई हरी-भरी घाटियाँ, कल-कल करते झरने, रहस्यमयी गुफाएं, भित्ति चित्र तथा इनसे जुडी लोमहर्षक कहानियां केसकाल को एक सम्पूर्ण पर्यटन ग्राम के रूप में स्थापित करती हैं l आज के अंक में हम चर्चा करेंगें केसकाल की घाटियों के शीर्ष पर स्थित टाटामारी, मांझिनगढ़, तथा लहू हाथा

ईको पर्यटन केन्द्र, टाटामारी
केशकाल घाटी के ऊपरी पठार पर 02 कि.मी. की दूरी पर स्थित टाटामारी प्राकृतिक सौंदर्य से आच्छादित पर्यटन स्थल है जो कि डेढ सौ एकड़ जमीन पर फैला हुआ है। टाटामारी पठार से घाटी की ऊंची चोटियों का विहंगम दृष्य देखते ही बनता है, यह स्थल नैसर्गिक रूप से मनोहरी है। हरियाली से आच्छादित पहाड़ो के मध्य स्थित टाटामारी पौराणिक मान्यताओ अनुसार अखंड ऋषि का तपोवन माना जाता है। यहाँ कई वर्षो से दीपावली लक्ष्मीपूजा के दिन श्रद्धालुगण विधि विधान से पूजा अर्चना करते हैं |

टाटामारी ईको पर्यटन केन्द्र में पर्यटकों के रूकने के लिये सर्व सुविधायुक्त 04 कॉटेज, तथा 04 डोरमेट्री की व्यवस्था है। टाटामारी ईको पर्यटन केन्द्र में जंगल में टैकिंग, साईक्लिंग, आरचेरी (तीर-घनुष), नाईट कैंपिंग आदि की सुविधा उपलब्ध है। टाटामारी से पर्यटक मारी क्षेत्रा में भ्रमण कर जल प्रपातों का आनंद ले सकते हैं। टाटामारी से लगे मारी क्षेत्र में छोटे-बड़े लगभग 17 जलप्रपात हैं ।

टाटामारी ईको पर्यटन केन्द्र के संरक्षण के लिये स्थानीय बेराजगार युवाओं को जोड़कर रोजगार के अवसर उपलब्ध कराये गये हैं, जिसमें छिन्दगढ़ के युवा मुख्य रूप से जुड़े हुए हैं, जो पूर्व में शिकार जैसे अपराधों में लिप्त रहे हैं, परन्तु विभाग की जागरूकता एवं प्रयास से अब इको पर्यटन पर कार्य कर रहे हैं । इस परिवर्तनवादी बदलाव से इन युवाओं के जीवन में अमूल-चूल सुधार हुआ है। वर्तमान में टाटामारी ईको पर्यटन केन्द्र में छत्तीसगढ़ के विभिन्न जिलों से प्रतिदिन 150 से 200 पर्यटकों का आवागमन होता है।

टाटामारी ईको पर्यटन केन्द्र के पठार क्षेत्रा में वन्य प्राणी संरक्षण एवं विकास का कार्य किया जा रहा है ताकि भविष्य में पर्यटकों को जंगल सफारी का भी आनंद प्राप्त हो सके। साथ ही साथ निकट भविष्य में टाटामारी ईको पर्यटन केन्द्र क्षेत्र में पैराग्लाईडिंग एडवेंचर एक्टिविटी के साथ-साथ अन्य रामांचक गतिविधियों जिसमें रॉक क्लाईम्बिंग, रैंपलिंग, टायर वाक, रात्रि उपग्रह दर्शन, कैम्प फायर आदि प्रस्तावित है। केशकाल में टाटामारी, मांझीनगढ़ के मारी क्षेत्र को संयुक्त रूप से टूरिज्म सर्किट के रूप में विकसित किये जाने का प्रयास किया जा रहा है। इस परियोजना से प्रदेश ही नहीं बल्कि देश-विदेश के पर्यटकों को इस क्षेत्र में पर्यटन का आनंद प्राप्त हो सकेगा तथा स्थानीय बेरोजगार युवाओं को ईको पर्यटन केन्द्र से जोड़कर स्थानीय स्तर पर रोजगार सृजन किया जा सकेगा | इको पर्यटन के माध्यम से बस्तर की संस्कृति को देश-विदेश तक पहुँचाया जा सकें, इस दिशा में वन विभाग सतत् प्रयासरत है। वर्तमान में विभाग द्वारा यहां समितियों का कुशलता प्रशिक्षण, रसोईघर (कैंटीन) तथा तितली संरक्षण क्षेत्र का विकास किया जा रहा है।

मांझीनगढ़
टाटामारी से मांझीनगढ़ 30 कि.मी. की दूरी पर स्थित है तथा टाटामारी की ही भांति एक अन्य पहाड़ी क्षेत्र है | मॉँझिनगढ़ में प्रागैतिहासिक काल के शैलचित्रों से क्षेत्र के वनवासियों के सांस्कृतिक वैभव का पता चलता है। दुर्गम वनक्षेत्र में पहाड़ियों की कंदराओं में अनेक भित्तिचित्र तथा रहस्य आज भी विद्यमान हैं|

जनश्रुति के आधार पर इन गुफाओं में उइका अर्थात मानव भक्षी बौने लोग रहा करते थे जो वनों में जीवन यापन करने वाले तथा भटक-कर यहाँ आने वाले मनुष्यों को मारकर खा जाते थे। माँझिनगढ़ के शैल चित्रों में उस काल के व्यक्तियों चित्त की व्यापकता प्रदर्शित होती है | पूर्वाभिमुख गुफा के ऊपर छत पर पंजो के असंख्य निशान बने हुए है, ये शैलचित्र 5 से 8 इंच के अकार में चटक लाल रंग के बने है तथा गुफा की 20 से 25 फीट की छत पर इन शैलचित्रों की श्रृंखला है|

एक बार घाटी में रहने वाले एक मांझी युवक ने उन नरभक्षी उइकाओं से लड़ने का मन बनाया और मॉँझिन गढ़ में भटकते हुए कहीं गायब हो गया तब से इस स्थान का नाम माझी गढ़ तथा कालांतर में माझिनगढ़ पड़ा। चारों ओर विशाल पहाड़ियों से घिरे मॉँझिन गढ अपने सनसेट पॉइंट के लिए भी पर्यटकों के मध्य प्रसिद्द है।

लहूहाथा
भटके हुए लोग व् ग्रामीण अंचल से अपहरण कर लाये व्यक्तियों को इस स्थल पर बलि चढाने के बाद उसके खून में हाथ रंग कर इस गुफा के छत पर पंजो के निशान लगा देते थे यही कारण है कि इस स्थान का नाम लहुहाथा पड़ा | लहुहाथा गुफा तक पहुचने के पूर्व रक्साखोह नाला के समीप किरकाची नामक गुफा है | जिसका प्रवेश द्वार अत्यंत छोटा है लेकिन गुफा के अन्दर विशाल सभा कक्ष है , जहा लगभग चार सौ लोगो के बैठने के योग्य स्थान है | ग्रामीण इसे तंत्र साधना का स्थल मानकर इसे तांत्रिक गुफा भी कहते है | गुफा के अन्दर छोटा तालाब था , जो वर्तमान में सूख गया है| किरकाची गुफा के पास हे रक्साखोह नाला के पत्थरों पर मानव पैर व् घुटनों के निशान बने हुए है जो की ग्रामीणों को इस बात का विशवास दिलाता है कि इस स्थल पर राक्षसों जैसे आदि मानवों का निवास स्थल था | संभवतः इसी विश्लेषण के आधार पर इस स्थान का नाम रक्साखोह पड़ा है|